कहानी संग्रह >> सिर्फ रेत ही रेत सिर्फ रेत ही रेतकामिनी
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कामिनी की कहानियां वर्तमान को आवाज लगाती हैं, ललकारती हैं, आज का समय उनकी कहानियों में बोलता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इन कहानियों के पात्र हवाई जहाज में उड़ने वाले नहीं हैं, न ही रेलवे के
ए.सी.कम्पार्टमेन्ट वाले। ये पात्र न मर्सडीज गाड़ियों की गुलगुली सीटों
में घुसकर बैठने वाले हैं और न ही सेठ-साहूकारों की बड़ी-बड़ी मनसदों से
टिकने वाले। डॉ. कामिनी के पात्र तो रोज कमाने वाले, रोज खाने वाले गरीब
मजदूर, किसान और बेसहारा जिन्दगी जीने वाले लोग हैं। इन कहानियों में दुख,
करुणा सहानुभूति उपजाने वाले पारिवारिक दृश्य हैं असीम निराशा के अंधकार
में आशा की एक किरण खोजती हुई—सी हैं, ये कहानियां।
डॉ. श्यामबिहारी श्रीवास्तव
डॉ. कामिनी की कहानियों की कहानी
कहानी ‘किस्सा गोई’ हैं। कहानी कहने और सुनने की
प्रवृत्ति आदमी में आदि काल से रही है। ‘‘फिर क्या
हुआ ?’’ की जिज्ञासा कहानी का मूल उत्स है, पढ़े लिखे
और बिना पढ़े दोनों ही वर्गों में कहानी अपने-अपने ढंग से प्रचलित है।
कहानी ज्ञान और मनोरंजन का सबसे प्रभावी साधन है क्योंकि जटिल और व्यस्ततम
जीवन में कहानी ही अपने छोटे से कलेवर में जिज्ञासाओं और समस्याओं के कारण
और निदान प्रस्तुत कर आस्वाद देती है। एडगर एलन पो के शब्दों में कहानी
‘रसोद्रेक करने वाला एक आख्यान है जो एक ही बैठक में निश्चित
लक्ष्य तक पहुँचा दे। किसी विचार या किसी घटना का अप्रत्याशित और
कुतूहलपूर्ण चित्रण कहानी है। डॉ. कामिनी की कहानियाँ जिज्ञासा, कुतूहल और
आकस्मिक प्रभाव से युक्त हैं।
हिन्दी साहित्य में कहानी की शुरुआत को लेकर अनेक मत रहे हैं पर किशोरीलाल गोस्वामी और जयशंकर प्रसाद पहले कहानीकार के रूप में सामने आए हैं। कहानी एक सशक्त विधा है। प्रयोगकाल से लेकर वर्तमान काल तक कहानी को अनेक कहानीकारों ने समृद्ध किया। अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में कहानी प्रेमचन्द युग में उत्कर्ष पर पहुँची। बदलते सामाजिक परिवेश और साहित्यिक मानदण्डों के अनुरूप तथा जीवन की जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में कहानी के शिल्प में स्वतः ही नयापन आता चला गया। यही नयापन डॉ. कामिनी की कहानियों की शैली और शिल्प में है। डॉ. कामिनी की कहानियाँ वर्तमान को आवाज लगाती हैं, ललकारती हैं, आज का समय उनकी कहानियों में बोलता है।
कहानी दुपहिया वाहन की तरह समाज के पतले से पतले गलियारे तक पहुँचती है। कहने का मतलब यह कि कहानीकार की दृष्टि समाज के हर पहलू पर जाती है। उसकी दृष्टि में समाज की खुशी और गम, उत्थान और पतन, सम्पन्नता और विपन्नता सांस्कृतिक, राजनैतिक और धार्मिक स्वरूप सब कुछ समाया रहता है। क्योंकि समाज कहानियों में प्रतिबिम्बित होता है। इसके बावजूद जो कहानी आदमी के दुःख के पास से गुजरती है, गरीबी का रेखांकन करती है, उपेक्षा और तिरस्कार को उकेरती है, विघटन की तस्वीर खींचती है और इस सबके समाधान का संदेश देती है, वह कहानी लोकप्रिय होती है और जीवित रहती है डॉ. कामिनी की कहानियाँ ऐसी ही जीवंतता लिए हुए हैं।
डॉ. कामिनी के तीन कहानी संग्रह इसके पहले प्रकाशित हो चुके हैं। ‘करील के काँटे’ उनका पहला संग्रह 1987 ईं. में संचयन कानपुर से प्रकाशित हुआ। ‘करील के काँटे’ की कहानियाँ अभावों और गरीबी, उपेक्षा और संत्रास की जिन्दगी जी रहे पात्रों की संवेदना को लपेटे हुए है। महिला कथाकार होने के नाते स्त्री पात्रों के अंतरंग प्रसंग इतने वास्तविक से और इतने स्पष्ट हैं कि समूची कहानियाँ सच का एक दर्पण सी लगती हैं। ‘करील के कांटे’ एक कहानी है, इस संग्रह की, जिसे शीर्षक का रूप दिया गया है। परन्तु इस संग्रह की सभी नौ कहानियाँ ऐसी करुणा, पीड़ा और संवेदना में डूबी हुई हैं कि शीर्षक को सार्थक कर रही हैं। ‘‘लग रहा था जैसे कोई करील की काँटेदार झाड़ी पर बारीक चादर बिछाकर धीरे-धीरे खींचता जा रहा हो उसको।’’ जैसे कथनों ने इस संग्रह की कहानियों में संवेदना को कई गुना कर दिया है।
डॉ. कामिनी की कहानियों का और मुखरित रूप उनके दूसरे कथा संग्रह ‘गुलदस्ता’ में उजागर हुआ है उनकी ये कहानियाँ आम आदमी की दैनिक सामाजिक जिन्दगी का पारदर्शी चित्र उपस्थित करती हैं। घटनाओं का चित्रण ऐसा सहज और भावुक है कि ये कहानियाँ न होकर यथार्थ जिन्दगी का खुला दस्तावेज है। जिनमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। प्रसिद्ध प्रगतिशील चिंतक डॉ. कामिनी की इन कहानियों में एक सिलसिला है। सिलसिला इस तरह, जैसे एक आदमी के जीवन की विविध छवियाँ हों ? हर छवि अपनी इकाई में एक कहानी है। कहानी होती ही ऐसी है कि बहु आयामी व्यक्तित्व का एक किनारा एक तरह से देख सके। जिस समय हम वह किनारा देखें उसी समय ठीक उसके पीछे दूसरा किनारा छिपा हो। कामिनी की कहानियों में धड़कनें हैं, खामोशी है, स्वाद है, अतिनींद है या अनींद है, तपन है या खुशबू है। रिश्तों के बनने-बिगड़ने के दागों और घावों से कहानियाँ रिस-रिस कर बनी है, रचनात्मक आवेश से इन कहानियों की संरचना हो पाई है’’ स्पष्ट है कि डॉ. कामिनी की कहानियों के सामाजिक सरोकार बहुत गहरे जुड़ाव हैं।
‘‘गुलदस्ता’’ कथा संग्रह के बारे में जनवादी चिंतक प्रकाश दीक्षित के आत्मीय विचार इस प्रकार हैं—‘‘इन कहानियों में घर-चौबारे का वातावरण है, जहाँ बिलकुल पास के बियाबान से आती हुई अनाम वनफूलों की गंध है, श्रम के पसीने और चूल्हे पर सिकती हुई रोटी के ताजा-ताजा सोंधेपन का आसन्न अनुभव है, और देखे भाले लोग हैं—न तो कोई शत-प्रतिशत दैत्य है और न कोई निखालिस देवता—सबके सब आदमी हैं और जब आदमी हैं तो वह वैसा ही व्यवहार करते हैं। हाँ, उनकी निजता कुछ यों निराली है कि कामिनी के चलाए नहीं चलते, खुद चलते हैं—वह आदर्श चरित्र भले न हों, मगर वे हैं ना ?’’ तात्पर्य यह है कि डॉ. कामिनी की कहानियों का धरातल इतना सहज है, जैसे कहानीकार अपने कथानायकों से पूरी आत्मीयता से घुला मिला हो। ऐसा घुलना-मिलना जिसमें कोई बनावट या छिपाव न हो।
‘बिखरे हुए मोरपंख’ डॉ. कामिनी का तीसरा कहानी संग्रह सन् 1997 ई. में प्रकाशित हुआ। यह उनकी कहानी विधा का और परिष्कृत स्वरूप एवं सतत् लेखन परिणाम है। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. विजयपाल सिंह ने ‘बिखरे हुए मोरपंख’ की कहानियों के विषय में लिखा है—‘अच्छी कहानी मानव जीवन में संघर्ष करने की प्रेरणा ही नहीं देती अपितु उसके पथ प्रदर्शन में भी सहायक होती है। श्रेष्ठ कहानी की विशेषताओं से डॉ. कामिनी की सभी कहानियाँ ओत प्रोत हैं। कथ्य, शिल्प, वातावरण आदि की दृष्टि से सभी कहानियाँ स्तरीय हैं। नाम से, भाषा से, सहजता से, विश्वास नहीं होता कि यह एक मुस्लिम महिला द्वारा लिखित कहानियाँ हैं।’’
और अब यह ‘सिर्फ रेत ही रेत’ डॉ. कामिनी का चौथा कहानी संकलन सुधी पाठकों के पास पहुंच रहा है। इस संकलन की सभी बारह कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं और विसंगतियों का दस्तावेज हैं। कथा लेखिका की कहानियों के पात्र हवाई जहाजों में उड़ने वाले नहीं हैं, न ही रेलवे के ए.सी. कम्पार्टमेण्ट वाले ये पात्र न मर्सडीज गाड़ियों की गुलगुली सीटों में घुसकर बैठने वाले हैं और न सेठ साहूकारों की बड़ी-बड़ी मनसदों से टिकने वाले। डॉ. कामिनी के पात्र तो रोज कमाने रोज खाने वाली गरीब मजदूर किसान और बेसहारा जिन्दगी जीने वाले लोग हैं। इन कहानियों में दुःख, करुणा, सहानुभूति उपजाने वाले पारिवारिक दृश्य हैं। असीम निराशा के अंधकार में आशा की एक किरण खोजती हुई सी हैं, ये कहानियाँ।
‘‘सिर्फ रेत ही रेत’’ की कहानियों में डॉ. कामिनी ने गरीब तबके के स्त्री-पुरुष पात्रों की दैनिक समस्याओं को बहुत करीब से देखा है। स्वयं के भोगे हुए यथार्थ जैसे सामाजिक धरातल पर खड़े होकर लेखिका ने पाया है कि जीवन वही नहीं है जो ऊपर से दिख रहा है। आज के इस जलते हुए माहौल में जिन्दगी की हर लड़ाई अंधेरे में लड़ी जा रही है, जहाँ कुछ भी निश्चित नहीं है, कुछ भी नहीं सूझ रहा है कि अगले क्षण क्या हो जाएगा बस संघर्ष ही संघर्ष, अचाहा, अजाना। यही है मूल संवेदना, कामिनी की कहानियों की।
‘‘सिर्फ रेत ही रेत’’ संग्रह का शीर्षक इस संग्रह की प्रभावपूर्ण कहानी ‘‘सिर्फ रेत ही रेत’’ के आधार पर निश्चित किया गया है। जब्बार मियाँ इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं जो भाड़ भूजने का काम करते हैं। मुहल्ले वालों को इस गरीब का यह काम अच्छा नहीं लगा और गुण्डों से धौंस दपट दिलाकर मुहल्ले का उनका मकान ही औने पौने दामों में बिकवा दिया जाता है। बेचारे बुड्ढे जब्बार दूसरी जगह छप्पर के नीचे भाड़ बनाकर काम प्रारम्भ कर देते हैं पर दुर्भाग्य से लगी आग छप्पर को स्वाहा कर देती है और इस गरीब के सामने सिर्फ रेत ही रेत बचती है। भाड़ में जलती हुई गर्म रेत सा जलता हुआ जीवन निराशा के दोराहे पर खड़ा रह जाता है। ‘मन का संविधान’ कहानी छली गई स्त्री की आत्मनिर्भरता की कहानी है। बुलबुल ने बब्बन से प्रेम विवाह किया था किन्तु अंत में वह दुर्व्यवहार करने लगा तब भी बुलबुल ने हिम्मत न हारी। वह सिलाई, बुनाई करके जीवन यापन करती है। ‘पंखुरी भर विश्वास’ में मीना डब्बू की रखैल बनकर रह जाती है। पर उसे कहीं न कहीं थोड़ा सा विश्वास जरूर है कि डब्बू उससे बाकायदा निकाह कर लेगा। ‘प्रवंचना’ इस संग्रह की अच्छी कहानी है। इस कहानी में लेखिका ने शिवनन्दन चौधरी के रूप में एक ठगिया, धोखेबाज और बेईमान साहूकार की कल्पना की है जो तीर्थ यात्रा में दिए उधार रुपयों के बदले हरजू साहू की गरीब विधवा उजियारी की डेढ़ बीघा टपरिया अपने खेत में मिला लेता है। ‘कैक्टस का फूल’ कहानी में ‘बहोरे’ का दूध सा निर्मल जीवन कैक्टस के सफेद फूल का प्रतीक है। ‘अल्लारक्खी’ में अल्लारक्खी एक बेसहारा औरत है जो सारा जीवन नफरत और विरोध झेलती है। सिर्फ निराश्रित पेंशन के रुपयों पर गुजर-बसर करने वाली अल्लारक्खी जैसी स्त्रियों का जीवन निराशा और अभाव का पिटारा है। ‘नागफनी’ और पलाश’ कहानी में गोरीबाई एक कर्मठ स्त्री है जिसे मक्कारी पसंद नहीं है पर जन्डैलसिंह के प्रेमजाल में वह गर्भवती हो जाती है। समाज से लड़ने का साहस नहीं जुटा पाती और नदी में डूब कर आत्महत्या कर लेती है। ‘वातायन’ महकने लगे’ कहानी में गोमती बुआ का त्याग अनुकरणीय है जो शहर की आराम की जिन्दगी छोड़कर गाँव में अपने भतीजे के परिवार को सुखी बनाने के लिए अपनी जमापूँजी से भैंस खरीद कर खोई रौनक को वापस लाने का प्रयास करती हैं।
उपसंहार इस संग्रह की टैक्निक एवं मूल संवेदना दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ कहानी है। यह सिर्फ टेलीफोन पर की गई बात में ही पूरी हो जाती है।
हिन्दी साहित्य में कहानी की शुरुआत को लेकर अनेक मत रहे हैं पर किशोरीलाल गोस्वामी और जयशंकर प्रसाद पहले कहानीकार के रूप में सामने आए हैं। कहानी एक सशक्त विधा है। प्रयोगकाल से लेकर वर्तमान काल तक कहानी को अनेक कहानीकारों ने समृद्ध किया। अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में कहानी प्रेमचन्द युग में उत्कर्ष पर पहुँची। बदलते सामाजिक परिवेश और साहित्यिक मानदण्डों के अनुरूप तथा जीवन की जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में कहानी के शिल्प में स्वतः ही नयापन आता चला गया। यही नयापन डॉ. कामिनी की कहानियों की शैली और शिल्प में है। डॉ. कामिनी की कहानियाँ वर्तमान को आवाज लगाती हैं, ललकारती हैं, आज का समय उनकी कहानियों में बोलता है।
कहानी दुपहिया वाहन की तरह समाज के पतले से पतले गलियारे तक पहुँचती है। कहने का मतलब यह कि कहानीकार की दृष्टि समाज के हर पहलू पर जाती है। उसकी दृष्टि में समाज की खुशी और गम, उत्थान और पतन, सम्पन्नता और विपन्नता सांस्कृतिक, राजनैतिक और धार्मिक स्वरूप सब कुछ समाया रहता है। क्योंकि समाज कहानियों में प्रतिबिम्बित होता है। इसके बावजूद जो कहानी आदमी के दुःख के पास से गुजरती है, गरीबी का रेखांकन करती है, उपेक्षा और तिरस्कार को उकेरती है, विघटन की तस्वीर खींचती है और इस सबके समाधान का संदेश देती है, वह कहानी लोकप्रिय होती है और जीवित रहती है डॉ. कामिनी की कहानियाँ ऐसी ही जीवंतता लिए हुए हैं।
डॉ. कामिनी के तीन कहानी संग्रह इसके पहले प्रकाशित हो चुके हैं। ‘करील के काँटे’ उनका पहला संग्रह 1987 ईं. में संचयन कानपुर से प्रकाशित हुआ। ‘करील के काँटे’ की कहानियाँ अभावों और गरीबी, उपेक्षा और संत्रास की जिन्दगी जी रहे पात्रों की संवेदना को लपेटे हुए है। महिला कथाकार होने के नाते स्त्री पात्रों के अंतरंग प्रसंग इतने वास्तविक से और इतने स्पष्ट हैं कि समूची कहानियाँ सच का एक दर्पण सी लगती हैं। ‘करील के कांटे’ एक कहानी है, इस संग्रह की, जिसे शीर्षक का रूप दिया गया है। परन्तु इस संग्रह की सभी नौ कहानियाँ ऐसी करुणा, पीड़ा और संवेदना में डूबी हुई हैं कि शीर्षक को सार्थक कर रही हैं। ‘‘लग रहा था जैसे कोई करील की काँटेदार झाड़ी पर बारीक चादर बिछाकर धीरे-धीरे खींचता जा रहा हो उसको।’’ जैसे कथनों ने इस संग्रह की कहानियों में संवेदना को कई गुना कर दिया है।
डॉ. कामिनी की कहानियों का और मुखरित रूप उनके दूसरे कथा संग्रह ‘गुलदस्ता’ में उजागर हुआ है उनकी ये कहानियाँ आम आदमी की दैनिक सामाजिक जिन्दगी का पारदर्शी चित्र उपस्थित करती हैं। घटनाओं का चित्रण ऐसा सहज और भावुक है कि ये कहानियाँ न होकर यथार्थ जिन्दगी का खुला दस्तावेज है। जिनमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। प्रसिद्ध प्रगतिशील चिंतक डॉ. कामिनी की इन कहानियों में एक सिलसिला है। सिलसिला इस तरह, जैसे एक आदमी के जीवन की विविध छवियाँ हों ? हर छवि अपनी इकाई में एक कहानी है। कहानी होती ही ऐसी है कि बहु आयामी व्यक्तित्व का एक किनारा एक तरह से देख सके। जिस समय हम वह किनारा देखें उसी समय ठीक उसके पीछे दूसरा किनारा छिपा हो। कामिनी की कहानियों में धड़कनें हैं, खामोशी है, स्वाद है, अतिनींद है या अनींद है, तपन है या खुशबू है। रिश्तों के बनने-बिगड़ने के दागों और घावों से कहानियाँ रिस-रिस कर बनी है, रचनात्मक आवेश से इन कहानियों की संरचना हो पाई है’’ स्पष्ट है कि डॉ. कामिनी की कहानियों के सामाजिक सरोकार बहुत गहरे जुड़ाव हैं।
‘‘गुलदस्ता’’ कथा संग्रह के बारे में जनवादी चिंतक प्रकाश दीक्षित के आत्मीय विचार इस प्रकार हैं—‘‘इन कहानियों में घर-चौबारे का वातावरण है, जहाँ बिलकुल पास के बियाबान से आती हुई अनाम वनफूलों की गंध है, श्रम के पसीने और चूल्हे पर सिकती हुई रोटी के ताजा-ताजा सोंधेपन का आसन्न अनुभव है, और देखे भाले लोग हैं—न तो कोई शत-प्रतिशत दैत्य है और न कोई निखालिस देवता—सबके सब आदमी हैं और जब आदमी हैं तो वह वैसा ही व्यवहार करते हैं। हाँ, उनकी निजता कुछ यों निराली है कि कामिनी के चलाए नहीं चलते, खुद चलते हैं—वह आदर्श चरित्र भले न हों, मगर वे हैं ना ?’’ तात्पर्य यह है कि डॉ. कामिनी की कहानियों का धरातल इतना सहज है, जैसे कहानीकार अपने कथानायकों से पूरी आत्मीयता से घुला मिला हो। ऐसा घुलना-मिलना जिसमें कोई बनावट या छिपाव न हो।
‘बिखरे हुए मोरपंख’ डॉ. कामिनी का तीसरा कहानी संग्रह सन् 1997 ई. में प्रकाशित हुआ। यह उनकी कहानी विधा का और परिष्कृत स्वरूप एवं सतत् लेखन परिणाम है। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. विजयपाल सिंह ने ‘बिखरे हुए मोरपंख’ की कहानियों के विषय में लिखा है—‘अच्छी कहानी मानव जीवन में संघर्ष करने की प्रेरणा ही नहीं देती अपितु उसके पथ प्रदर्शन में भी सहायक होती है। श्रेष्ठ कहानी की विशेषताओं से डॉ. कामिनी की सभी कहानियाँ ओत प्रोत हैं। कथ्य, शिल्प, वातावरण आदि की दृष्टि से सभी कहानियाँ स्तरीय हैं। नाम से, भाषा से, सहजता से, विश्वास नहीं होता कि यह एक मुस्लिम महिला द्वारा लिखित कहानियाँ हैं।’’
और अब यह ‘सिर्फ रेत ही रेत’ डॉ. कामिनी का चौथा कहानी संकलन सुधी पाठकों के पास पहुंच रहा है। इस संकलन की सभी बारह कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन की जटिलताओं और विसंगतियों का दस्तावेज हैं। कथा लेखिका की कहानियों के पात्र हवाई जहाजों में उड़ने वाले नहीं हैं, न ही रेलवे के ए.सी. कम्पार्टमेण्ट वाले ये पात्र न मर्सडीज गाड़ियों की गुलगुली सीटों में घुसकर बैठने वाले हैं और न सेठ साहूकारों की बड़ी-बड़ी मनसदों से टिकने वाले। डॉ. कामिनी के पात्र तो रोज कमाने रोज खाने वाली गरीब मजदूर किसान और बेसहारा जिन्दगी जीने वाले लोग हैं। इन कहानियों में दुःख, करुणा, सहानुभूति उपजाने वाले पारिवारिक दृश्य हैं। असीम निराशा के अंधकार में आशा की एक किरण खोजती हुई सी हैं, ये कहानियाँ।
‘‘सिर्फ रेत ही रेत’’ की कहानियों में डॉ. कामिनी ने गरीब तबके के स्त्री-पुरुष पात्रों की दैनिक समस्याओं को बहुत करीब से देखा है। स्वयं के भोगे हुए यथार्थ जैसे सामाजिक धरातल पर खड़े होकर लेखिका ने पाया है कि जीवन वही नहीं है जो ऊपर से दिख रहा है। आज के इस जलते हुए माहौल में जिन्दगी की हर लड़ाई अंधेरे में लड़ी जा रही है, जहाँ कुछ भी निश्चित नहीं है, कुछ भी नहीं सूझ रहा है कि अगले क्षण क्या हो जाएगा बस संघर्ष ही संघर्ष, अचाहा, अजाना। यही है मूल संवेदना, कामिनी की कहानियों की।
‘‘सिर्फ रेत ही रेत’’ संग्रह का शीर्षक इस संग्रह की प्रभावपूर्ण कहानी ‘‘सिर्फ रेत ही रेत’’ के आधार पर निश्चित किया गया है। जब्बार मियाँ इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं जो भाड़ भूजने का काम करते हैं। मुहल्ले वालों को इस गरीब का यह काम अच्छा नहीं लगा और गुण्डों से धौंस दपट दिलाकर मुहल्ले का उनका मकान ही औने पौने दामों में बिकवा दिया जाता है। बेचारे बुड्ढे जब्बार दूसरी जगह छप्पर के नीचे भाड़ बनाकर काम प्रारम्भ कर देते हैं पर दुर्भाग्य से लगी आग छप्पर को स्वाहा कर देती है और इस गरीब के सामने सिर्फ रेत ही रेत बचती है। भाड़ में जलती हुई गर्म रेत सा जलता हुआ जीवन निराशा के दोराहे पर खड़ा रह जाता है। ‘मन का संविधान’ कहानी छली गई स्त्री की आत्मनिर्भरता की कहानी है। बुलबुल ने बब्बन से प्रेम विवाह किया था किन्तु अंत में वह दुर्व्यवहार करने लगा तब भी बुलबुल ने हिम्मत न हारी। वह सिलाई, बुनाई करके जीवन यापन करती है। ‘पंखुरी भर विश्वास’ में मीना डब्बू की रखैल बनकर रह जाती है। पर उसे कहीं न कहीं थोड़ा सा विश्वास जरूर है कि डब्बू उससे बाकायदा निकाह कर लेगा। ‘प्रवंचना’ इस संग्रह की अच्छी कहानी है। इस कहानी में लेखिका ने शिवनन्दन चौधरी के रूप में एक ठगिया, धोखेबाज और बेईमान साहूकार की कल्पना की है जो तीर्थ यात्रा में दिए उधार रुपयों के बदले हरजू साहू की गरीब विधवा उजियारी की डेढ़ बीघा टपरिया अपने खेत में मिला लेता है। ‘कैक्टस का फूल’ कहानी में ‘बहोरे’ का दूध सा निर्मल जीवन कैक्टस के सफेद फूल का प्रतीक है। ‘अल्लारक्खी’ में अल्लारक्खी एक बेसहारा औरत है जो सारा जीवन नफरत और विरोध झेलती है। सिर्फ निराश्रित पेंशन के रुपयों पर गुजर-बसर करने वाली अल्लारक्खी जैसी स्त्रियों का जीवन निराशा और अभाव का पिटारा है। ‘नागफनी’ और पलाश’ कहानी में गोरीबाई एक कर्मठ स्त्री है जिसे मक्कारी पसंद नहीं है पर जन्डैलसिंह के प्रेमजाल में वह गर्भवती हो जाती है। समाज से लड़ने का साहस नहीं जुटा पाती और नदी में डूब कर आत्महत्या कर लेती है। ‘वातायन’ महकने लगे’ कहानी में गोमती बुआ का त्याग अनुकरणीय है जो शहर की आराम की जिन्दगी छोड़कर गाँव में अपने भतीजे के परिवार को सुखी बनाने के लिए अपनी जमापूँजी से भैंस खरीद कर खोई रौनक को वापस लाने का प्रयास करती हैं।
उपसंहार इस संग्रह की टैक्निक एवं मूल संवेदना दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ कहानी है। यह सिर्फ टेलीफोन पर की गई बात में ही पूरी हो जाती है।
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